टोबा टेक सिंह से अमृतसर.
ज़िन्दगी और मौत की आँख मिचोली
मेरा जन्म लई जात्ती , गर्ग गोत्र के शर्मा परिवार में २९ दिसंबर १९४० में हुआ. मेरे पिताजी का नाम श्री लालचंद शर्मा एवं माताजी का नाम श्रीमती कैलाशवंती था. हमारा परिवार मूलतः भलेर बाजवा स्यालकोट का रहने वाला था. मेरे जन्म से पहले ही सारा परिवार टोबा टेक सिंह आ कर बस गया था। टोबा टेक सिंह में हम मोहल्ला रामपुरा में रहते थे।
हमारे परिवार में
दादीजी श्रीमती गुरदेवी
तायाजी श्री अमरनाथ पिताजी लालचंद चाचाजी प्रीतमदास चाचाजी गोपालदास
ताईजी श्रीमती वीरादेवी माँ कैलाशवंती चाचीजी लाजवन्ती चाचीजी सुहागवंती
पुत्र देसराज पुत्र देवराज पुत्र सतपाल
पुत्र ओमप्रकाश पुत्री सुदर्शन
बुआ रामप्यारी ( ससुराल में नाम कृष्णवन्ति )
पुत्र सुदेश
पुत्री सुशीला
बुआजी दुर्गादेवी
बुआजी दुर्गादेवी
घर के सामने खुला मैदान था जहां पशु दिन भर चरते रहते थे. घर में एक ऊँठ और दो बैल थे। एक ऊन कातने की मशीन थी और आइस फैक्ट्री का काम था. २-३ की.मी दूर ही भलेर चक ३२७ में हमारी खेती की ज़मीन थी. यह जगह अभी भी चक ३२७ के नाम से जानी जाती है.
भलेर चक ३२७ के अभी के दृश्य |
सन १९४७ के जुलाई महीने की बात है, देसराज भैया और मैं बुआजी रामप्यारी को टोबा टेक सिंह रेलवे स्टेशन छोड़ने गये. वहां हम ने देखा कि ट्रेन से ४-५ लाशें उतार कर रखी जा रहीं हैं. यह वह हिन्दू सिख मुसाफिर थे जिन्हे मुसलमानो ने क़त्ल कर दिया था.
टोबा टेक सिंह का रेलवे स्टेशन |
घर आ कर परिवार के बड़े बुजुर्गो को सारी बात बताई। मोहल्ले के सभी बुजुर्गो ने यह फैसला लिया की शहर छोड़ कर किसी गांव में पनाह ली जाये। गांव में हिन्दू और सिखों की संख्या ज्यादा होने के कारण शहर की उपेक्षा गावं में ज्यादा सुरक्षित थे। तायाजी अमरनाथ और दादीजी गुरदेवी को छोड़ के बाकी सारा परिवार गावं गगोवल चला गया. मेरे चाचाजी गोपालदास स्वतंत्रता सेनानी थे और उस समय अंग्रेज़ हुकूमत के बंदी थे।
ताईजी के भाई गंडामल और हुकुमदास की गांव गगोमाल ( Chak 159 GB ) में करियाने की दुकान थी। हम सब को वहां छोड़ कर मेरे पिताजी श्री लालचंद अपने एक मित्र के साथ टोबा टेक सिंह वापिस लौट गये. वह आखरी बार था जब मैंने अपने पिताजी को देखा .
टोबा टेक सिंह से गगोमाल |
३-४ दिन के बाद की बात है , शाम को हम सारे बच्चे मामाजी के घर की छत्त पर खेल रहे थे, की अचानक कुछ २-३ कि. मी दूर किसी गावं से आग की लपटे आसमान को छूती नज़र आई. सारे बच्चे शोर मचाने लगे. मामाजी हुकुमदास का बेटा बृजलाल ऊपर आया और हमें डांटने लगा। जब उन्होंने भी आग की लपटों को देखा तो वह भाग के नीचे गये. सारे गावं के बुज़ुर्ग इकटठा हुए और यह फैसला लिया गया की गावं के एक नाई को, जो एक मुस्लमान था, उसे एक घोडा दे कर पता करने के लिए भेजा जाए। नाई ने वापिस आ कर बताया कि सारे गावं को मुसलमानो ने लूट कर आग लगा दी है. बिगड़ते हालात देखते हुए सारे गावं ने फैसला लिया कि अब यहां रहना ठीक नहीं है। अपने करियाने की दुकान से मिटटी का तेल निकाल कर बृजलाल ने सारे गावं में आग लगा दी। मुस्लमान दंगाईयों को यह लगा कि इस गावं में हिन्दुओं का सफाया हो चूका है और वह किसी और गावं की तरफ चले गए । रात को सारा गावं ७-८ कि. मि. दूर खुले मैदान में जा के रुका . सारी रात गावं के सभी परिवार वालो ने वहीँ बिताई।
सुबह कुछ लोग वापस गगोमाल गए, पर हालात इतने खराब थे, कि कोई वहां रहने के हक़ में नहीं था।
सबको हिदायत दी गयी की अपना अपना समान बांध लो और हिंदुस्तान की ओर चल पड़ो. गांव के लोगों ने अपने अपने घर के पशु जो काफिले में नहीं जा सकते थे, उन्हें खुला छोड़ दिया. जो भी अपना समान समेट सकते थे वह सब ले कर २०-२५ बैलगाड़ियों के काफिले में निकल पड़े.
बहुत गर्मी के दिन थे और प्यास बहुत लगती थी। सारे रास्ते में जितने कुँए थे, उन सब में मुसलमानो ने पशु काट के डाले हुए थे, ताकि कोइ हिन्दू या सिख कुँए का पानी न पी सके। जो रास्ते में हैंड पंप लगे हुए थे उनके हैंडल निकाल कर उसमें मरे हुए चूहे फेंके हुए थे। प्यास बुझाने के लिए हम गन्ना चूपते थे, पर उस से और प्यास लगती।
गावं के दो सिख घुड़सवारों के पास बन्दुके थी. वह सारे रास्ते काफिले के साथ साथ आगे से पीछे और फिर पीछे से आगे चक्कर लगाते रेह्ते. काफिला चलते चलते जड़ियांवाला पहुँच गया। यहां किसी बात पे मामाजी से मतभेद होने के कारण हमारा परिवार वहीँ रुक गया. मामाजी हुकुमदास और मामाजी गंडामल काफिले के साथ आगे निकल गए । हमारा ऊँठ और बैलगाड़ी भी चली गयी।
गगोमाल से जड़ांवाला |
जडावाला में दो कैंप थे। एक बाहर खुले मैदान में और दूसरा अनाज मंडी में । हम पहले बाहर खुले मैदान में रुके। बलोच रेजिमेंट के सिपाहियों ने हमें शाम को अनाज मंडी वाले कैंप में जाने को कहा। सारा परिवार अनाज मंडी कैंप में आ गया। कैंप में कोई खाने पीने का इंतज़ाम नहीं था। भैया देसराज को उनके कॉलेज का मित्र अब्दुल करीम मिल गया। अब्दुल करीम और देसराज भैया F.A में साथ पड़ते थे । अब्दुल करीम civil supply Dept में था और उनकी एक चक्की और करियाने की दूकान थी। अब्दुल करीम ने भैया से कहा की जो भी लेना चाहते हो वह ले लो। हम लोग एक बोरी कनक और गुड ले आये। देसराज भैया की चप्पल टूटी हुई थी। उन्हें एक दुकान का शटर खोल के करीम ने नई चप्पल भी दी। कैंप में हम कनक को उबाल के गुड साथ मिला के खाते थे। नहर का गन्दा पानी इकटठा कर के साफ़ कर के पीते थे।
मंडी कैंप में चारो तरफ दुकाने और गोदाम थे, बीच में खुला मैदान था। दो बड़े दरवाज़े थे जिसमें पीछे के दरवाज़े के बीच में एक छोटा गेट खुला हुआ था। बलोच रेजिमेंट के सिपाहियों ने कैंप में आ कर सारे आदमियों को एक मीटिंग अटेंड करने के लिए बुलाया। मीटिंग में जाने के लिए मंडी के पिछले छोटे गेट से सर झुका कर निकलना पड़ता था। जैसे ही कोई हिन्दू या सिख जवान सर झुका कर निकलता था, तो गेट के दूसरी तरफ खड़े दो मुस्लमान तेज़ धार वाले हथियारों से उन पर वार कर देते। ऐसे कई लोगों को मरते देख, बाकियों ने मीटिंग में जाने से मना कर दिया।
बलोच रेजिमेंट के सिपाही |
बलोच रेजिमेंट के सिपाही फिर से कैंप में आ गए और हिन्दू सिख जवानो को तलाशने लगे। बुआजी दुर्गादेवी ने चाचाजी प्रीतमदास और भैया देसराज को गुड की बोरियों में छिपा दिया. बलोच रेजिमेंट के सिपाहियों ने अपने राइफल के आगे लगे चाकू से सब बोरियों को खोब खोब के तलाशी ली। पर वह चाचाजी और भैया को ढूंढ नहीं पाये।
सब लोगों ने आक्रोश व्यक्त किया और मंडी कैंप छोड़ के फिर से मैदान वाले खुले कैंप में आ गए। मेरी चाचीजी सुहागवंती गर्भवती थी। कैंप में ही उन्होंने एक कन्या तोषी को जन्म दिया । जैसे ही खबर फैली की बलोच रेजिमेंट के सिपाही हिन्दुओं का क़त्ल कर रहे हैं, तो उनकी जगह हिंदुस्तानी फ़ौज आ गयी।
हिंदुस्तानी फ़ौज के ट्रक में बैठ कर हम लाहौर आ गए। लाहौर के किसी कॉलेज में कैंप लगा था। हम ने देखे की उस कैंप के Incharge मेरे चाचाजी गोपालदास थे जो अंग्रेज़ हुकूमत के कैद से आज़ाद हो गए थे । हम लोग एक हफ्ता लाहौर कैंप में रहे।
लाहौर से हम सब हिंदुस्तानी फौज के ट्रक में अमृतसर खालसा कॉलेज कैंप में आ गये। वह दिवाली की रात थी। १२ नवंबर १९४७।
चाचाजी प्रीतमदास के ससुराल वाले अमृतसर में थे। उनसे संपर्क हुआ तो उन्होंने बताया कि एक घर हरिपुरा में हमारे लिए उन्होंने संभाल के रखा है। घर में बहुत सी लकड़ियाँ थी। शायद किसी तरखान का घर था।
कैंप में announcement होती थी कि फलां फलां शहर या गावं का convoy आया है और फलां फलां कैंप में रुका है। तो सब लोग अपने बिछड़े परिवार वालों को ढूंढने कैंप के चक्कर लगाते रहते। ऐसी ही एक announcement हुई की टोबा टेक सिंह का एक काफिला आ के फिरोज़पुर कैंप में रुका है। लाहौर कैंप के incharge चाचाजी गोपालदास फिरोज़पुर गए और कैंप में अपने बिछड़ों को तलाशने लगे। उन्हें वहाँ दादीजी गुरदेवी और तायाजी अमरनाथ मिल गए। उन्हें ले के चाचाजी हरिपुरा आ गए।
अब मेरे पिताजी लालचंद को छोड़ सारा परिवार इकठा हो गया। उनको ढूंढने के प्रयास में हम ने radio और अख़बार में इश्तिहार दिए। अमृतसर के गोबिंदगढ़ किले के कैंप में distributor का काम करने वाले एक व्यक्ति ने बताया की चाचाजी गोपालदास से मिलती जुलती शकल का एक आदमी एक दिन पहले तक कैंप में ही था और अभी नहीं है।
एक ट्रक ड्राइवर जो मेरे पिताजी का दोस्त था वह भी चाचाजी गोपालदास को मिला। उसने चाचाजी को पुछा कि आपको लालचंद मिल गया ? चाचाजी ने उसे बताया की मेरे पिताजी को छोड़ के सारा परिवार मिल गया है। तब उस ट्रक ड्राइवर ने चाचाजी को बताया की मरे पिताजी उसको मिले थे और यह कहा था कि वह अपने परिवार को ढूंढने के लिए अटारी रेलवे स्टेशन जा रहे हैं। यह सुन कर हम लोग अटारी रेलवे स्टेशन भी उनको ढूंढने गए।
उनका कहीं पता नहीं चला। न कोई फोटो न कोई चित्र , बस मेरी यादों में मेरे पिताजी की हलकी सी झलक है।
बायें से :- बुआजी दुर्गादेवी , तायाजी अमरनाथ, चाचाजी प्रीतमदास , बुआजी रामप्यारी
बुआजी दुर्गादेवी ने जड़ांवाला कैंप में गुड के बोरे में छिपा कर चाचाजी प्रीतमदास और भैया देसराज की जान बचायी थी
स्वतंत्रता सेनानी गोपालदासजी |
भैया देसराज |
भैया ओम प्रकाश |
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